रतनजोत एक, फायदे अनेक
अंतर्राष्टीय बाजार में तेल की उपलब्धता, मूल्य की अनिश्चितता तथा उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए गैर पारम्परिक स्रोतों जैसे तिलहनों व् वृक्षों से प्राप्त होने वाले बीजों के तेलों को पेट्रोलियम उत्पादों के स्थान पर उपयोग में लाने का प्रयत्न कृषि वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों द्वारा किया जा रहा है । यद्यपि अमेरिका व यूरोप के कुछ देशों में वनस्पति तेल को काफी अधिक मा अधिक मात्रा में डीजल के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा रहा है परन्तु 100 करोड़ से अधिक की आबादी वाले भारत वर्ष में खाद्य तेल की बढ़ती मांग व् उसकी आपूर्ति हेतु आयात पर निर्भरता के कारण खाद्य तेलों का डीजल के विकल्प के रूप में सोचा जाना उचित नहीं होगाहा हागा।रतनजोत जिसे प्रायः चन्द्|त, सफेद अरण्ड, काला अरण्ड, जमालगोटा आदि नामों से भी जाना जाता है, सुखा और अधिक वर्षा वाले दोनों क्षेत्रों की ऊँची, नीची पथरीली व् व्यर्थ पड़ी भूमि में आसानी से उगने में सक्षम है। इसकी जेस्टेशन (फल धारण) अवधि दो साल होती है तथा एक बार पौध लगाने से लगभग 35-40 वर्षों तक।
सर्वोत्तम विशेषताएं -- पादप जगत की कुछ प्रजातियाँ विशेषकर वृक्षमूल तिलहनों जैसे जेट्रोफा, करंज, नीम, तुंग इत्यादि आदि से प्राप्त होने वाले तेलों को डीजल के विकल्प के रूप में उपयोग में लाने की प्रबल संभावनाएं हैं। बायोडीजल के विकल्प के रूप में रतनजोत (जेट्रोफा करकास) अपनी कुछ विशेषताओं के कारण सर्वोत्तम पाया गया गया है अधिक देख-भाल के उत्पादन देता है। इसका संवर्धन बीज तथा तना कलम दारा आसानी से किया जा सकता है । इसे जंगली एवं घरेल पश नहीं खाते हैं। अत खेत के चारों ओर बाढ के रूप में भी दो शाया जा सकता । उसकी फसल में प्राय- कोटों व बीमारियों का प्रकोप बहुत कम दिखाई देता है ।यह एक औषधीय उपयोग वाला पौधा भी है जिसमें जेट्रोफिन नामक तत्व पाया जाता है । इसके तेल का उपयोग कैसर, दादखाज, खुजली एवं गठिया रोगों के उपचार में किया जाता है। इसके अलावा इसका तेल भविष्य में बायोडीजल के अवश्यम्भावी विकल्प के रूप में इंजन की बनावट में बिना कोई परिवर्तन किये किया जा सकता है। रतनजोत के बीज में 30-40 प्रतिशत तक तेल/वसा पाई जाती है । अपनी इसी बहुपयोगी एवं विलक्ष्ण गुणों के कारण यह अंतर्राष्टीय एवं राष्टीय स्तर पर ऊर्जा क्षेत्र में सरकार के ध्यानाकर्षण का केंद्र बना हुआ है।
योजनाएँ -- राष्ट्रीय तिलहन एवं वनस्पति तेल विकास बोर्ड, गुडगाँव द्वारा जेट्रोफा के विकास हेतु नर्सरी, पौधरोपण, प्रशिक्षण, बीज खरीद केंद्र की स्थापना, बहुद्देशीय पूर्व प्रसंस्करण एवं प्रसंस्करण उपकरणों की स्थापना, गुणकारी बीज की उपलब्धता हेतु अनुसंधान एवं विकास जैसी अनेक योजनाएँ संचालित की जा रही हैं तथा इसके पौधरोपण व गणकारी संग्रह के प्रोत्साहन हेतु 30 प्रतिशत सरकारी अनुदान की व्यवस्था भी बोर्ड के माध्यम से की जा रही है । जेट्रोफा की वैज्ञानिक खेती के लिए तकनीकी जानकारी के तौर पर इस पस्तिका का प्रकाशन निश्चित तौर पर कृषकों, प्राथमिक बीज संग्राहकों, उद्योगों आदि के लिए उपयोगी होगा प्रस्तुत पुस्तिका में विभन्न महत्वपूर्ण पहलुओं जैसे जेट्रोफा का परिचय, क्षेत्रीय नाम, वानस्पतिक विवरण, रासायनिक संगठन, प्रजातियाँ जलवायु, प्रवर्धन विधि, पौधरोपण की तकनीक, रोग व् बीमारियों, छंटाई, उपज, उपयोगिता, गुणकारी बीज स्रोत आदि सहित विविध जानकारी का सविस्तार विवरण संकलित करने का प्रयास किया गया है।
जेट्रोफा की खेती से हरित क्षेत्र को बढ़ावा देने के साथ-साथ रोजगार के अवसर, पेट्रोकेमिकल आयात में खर्च होने वाली मुद्रा कीबचत, बंजर व् अनुपयोगी भूमि की उपयोग आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी अभूतपूर्व वृद्धि होगी। महान विचारक, फिस्कल कॉमिसियो ने बिलकुल ठीक ही कहा है कि कृषि सिर्फ एक पेशा नहीं है बल्कि यह एक इसी जीवनपद्धति है जिसका प्रभाव लाखों लोगों की विचारधारा और दृष्टिकोण पर पडता है। भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देश, जिसकी 65 प्रतिशत जनसंख्या की अधिकतम निर्भरता कृषि पर ही है, के संदर्भ में तो यह बात शत-प्रतिशत प्रासंगिक व सटीक प्रतीत होती है। कृषि और भारतीय अर्थव्यवस्था परस्पर इतने सम्बद्ध हैं कि एक से अलग दुसरे का विचार करना मुश्किल है। खेती का कामकाज फलता-फूलता है तो अन्य उद्यमों, सकल घरेलू उत्पाद सहित स्टॉक-मार्केट पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव परिलक्षित होता है । यही कारण रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के योजनाकारों ने योजना प्रक्रिया के शुरुआती दौर से ही कृषि क्षेत्र को सुदृढ़ करने पर तथा भारतीय कृषि विशेषज्ञों ने कृषि के विविधिकरण पर खासा ध्यान दिया है । इसी क्रम में पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के निरंतर कम होते भंडार के कारण उत्पन्न होने वाले आसन्न ऊर्जा-संकट से बचने के लिए दुनियाँ के विकसित व विकासशील राष्टों के द्वारा किए जा रहे प्रयासों के अनुरूप भारतवर्ष द्वारा भी अपनी ऊर्जा जरूरतों की कुछ हद तक भरपाई. पेटोलियम पदार्थों के आयात पर हो रहे लगातार बढ़ते खर्चे को कम करने और पारिस्थितिक संतुलन कायम रखने के उद्देश्य से अपनी अर्थव्यवस्था के मेरुदंड कृषि क्षेत्र का ही सहारा लिए जाने की कोशिश की जा रही है किसमें रतनजोत व करंजा जैसे वृक्षमूल वाले तिलहनों से प्राप्त तेल को डीजल के उपस्थापक एवं बायो-डीजल के तौर पर उपयोग में लाए जाने की संभावनाओं के बारे में गंभीर प्रयत्न किए जा रहे है।
विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था विकासशील देशों की विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था इनके ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर करती है। वर्तमान परिदृशय में विकास की तथाकथित होड़ में पूरी मानवता ने सृष्टि के कई घटकों का ऐसा असंतुलित और अनवरत उपयोग किया है कि प्रकृति प्रदत्त कई प्रारंभिक स्रोत जैसे जीवाष्म ईधन तथा कोयला इत्यादि ऊर्जा के सहज प्राप्त साधन अब अक्षय नहीं रह गए हैं। अतः पारिस्थितिक संतुलन हेतु यह आवश्यक है कि उन ऊर्जा विकल्पों का प्रयोग किया जाए जो सामाजिक तौर पर स्वीकार्य, सुरक्षित तथा पर्यावर्णीय दृष्टिकोण से अनुकूल हों। इसी सन्दर्भ में परमाणु ऊर्जा, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा व प्राकृतिक गैस आदि के रूप में कई विकल्प अब उपलब्ध हो चके हैं परन्तु विकिरण से जुड़े खतरों, अत्यधिक लागत व अन्य सीमाओं की वजह से इन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है
बढ़ता उपयोग -- वैसे तो दुनियाँ के कुछ देशों में पारंपरिक खाद्यतिलहनों से प्राप्त तेल का उपयोग भी डीजल की जगह पर किया जा रहा है परन्तु हमारे देश की बढ़ती जनसंख्या के रोजमर्रे की जरूरतों को पूरा करने के लिए इन खाद्य तालों का आयात करना पड़ता है । यही वजह है कि विशेषज्ञों द्वारा रतनजोत, करंजा, नीम, जंगली खुबानी, सिमारुबा जैसे वृक्षमूल वाले पादप स्रोतों से प्राप्त तेल को डीजल के उपस्थापक अथवा बायो-डीजल के रूप में प्रयोग में लाए जाने की संभावनाओं पर जोर दिया जा रहा है । इससे पारंपारिक खेती के लिए उपयोग में लाई जाने वाली जोत में कमी भी नहीं होगी और देश भर के लाखों हेक्टेयर में फैले बंजर भू- भाग को हरियाली से आच्छादित भी किया जा सकेगाउपर्युक्त सभी वृक्षमूल वाले तिलहनों में से कई नामों से प्रसिद्ध रतनजोत अथवा जेट्रोफा करकास अपनी कई खूबियों के कारण सबसे खास है क्योंकि यह कई प्रकार की बंजर भूमियों में उगाया जा सकता है । इसके लिए कम पानी की जरूरत होती है, यह जल्दी फल देना भी प्रारंभ क्र देता है और लगभग 30-40 सालों तक कम देख-रेख के बावजूद बहुवर्षीय रूप में फलता रहता है । इसे पशु नहीं खाते हैं और न ही इस पर बीमारियों का प्रकोप होता है । इसे खेतों के बाढ के रूप में लगाया जा सकता है । इसके बीजों का भंडारण लंबी अवधि तक किया जा सकता है और बीजों से 30 से 40 प्रतिशत तक तेल प्राप्त किया जा सकता है किसके ट्रांसएस्टेरीफिकेशन के बाद इसे डीजल के रूप में (5 से 10 प्रतिशत तक मिलाकर) इंजनों एवं वाहनों में उपयोग में लाया जा सकता है जिसका शुरूआती फलेश प्वाइंट डीजल से दुगुना लगभग 100 डिग्री सेंटीग्रेड है इस बायो-डीजल का संग्रह, उपयोग व इसकी ढुलाई भी अपेक्षाकृत आसान व सुरक्षित है । इसकी खली बायो-गैस संयत्र चलाने, कार्बनिकउर्वरक तथा कीटनाशी के रूप में भी उपयोग में लाई जा सकती है । इसके अन्य फायदों आदि के बारे में विस्तार से इस पुस्तिका में क्रमवार चर्चा की गई है
राष्टीय तिलहन एवं वनस्पति तेल विकास बोर्ड, गुडगाँव को कृषि एवं सहकारिता विभाग, भारत सरकार द्वारा उपर्युक्त वृक्षमूल वाले तिलहनों के समग्र विकास व प्रोत्साहन की प्रमुख जिम्मेदारी दी गई है जिसमें इसकी नर्सरी तैयार करने, पौधरोपण, अनुसंधान व विकास, पूर्व एवं पश्च-कृषि उपकरणों का विकास, विपणन, भंडारणआदि के लिए मूलभूत सुविधाओं के विकास इत्यादि हेतु उपयुक्त एजेन्सियों के चयन, उनका नेटवर्क गठित करने तथा उन्हें वित्तीय सहायता के साथ-साथ तकनीकी जानकारी मुहैया कराने एवं इन कार्यक्रमों की समीक्षा का कार्य शामिल है। नोवोड बोर्ड द्वारा प्रस्तुत यह जानकारी आम किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, कृषि नियोजकों वइस क्षेत्र से जुड़े अन्य सभी उपयोगकर्ताओं के लिए मूल्यवान व उपयोगी साबित होगी।